न्याय व्यवस्था में राजनीति कब तक बाधा होगी? 

देश की न्याय व्यवस्था ही किसी हद तक यह तय करती है कि देश कितना सुशासन और विकास की तरफ बढ़ेगा। हम कई दशकों से देखते आ रहे हैं कि हमारे देश की न्याय व्यवस्था में आने वाली देरी देश के न्यायिक संस्थाओं पर प्रश्न करती रही हैं। हम कभी अपने श्रेष्ठ जनों के साथ बैठे तो अक्सर यह सुनने को मिलता है कि अगर किसी जमीन की दीवानी का मुकदमा दायर हो गया है तो उसका फैसला आने वाली तीसरी पीढ़ी सुनेगी। खैर,यह तो एक सिविल केस ही है।

 आखिर देश की न्याय व्यवस्था को लेकर इतनी निराशा देश  आज भी क्यों है!  हम जहाँ डिजिटल इंडिया और 5 ट्रिलियन इकोनाॅमी जैसे लक्ष्यों को लेकर चल रहे हैं, तो क्या यह न्यायिक फैसलों में देरी से संभव हो पाएगा? 

हमारे इस चलती आ रही समस्या में न्याय तंत्र तो कम लेकिन सरकारी अड़ंगे  ज्यादा जिम्मेदार नजर आते हैं। एक तरफ जहां दिन-प्रतिदिन केसों की संख्या बढ़ती जा रही है वहीं दूसरी तरफ जजों की संख्या बहुत ही कम है। भारत के उच्च न्यायालय में ही अभी तक 36% जजों की रिक्त सीटें हैं। 1098 की मानक सीटों में सिर्फ 696 जज ही कार्यरत् हैं और 402 जजों की सीटें खाली पड़ी है। 

2011 की जनगणना के मुताबिक साल 2020 में जजों की संख्या प्रति दस लाख लोगों पर लगभग 21 आंकी गई। न्यायिक व्यवस्था की धीमी गति के कारण ही लगभग 4 करोड़ मुकदमे लंबित पड़े हुए हैं जिनमें भी लगभग 3.14 करोड़ मामले  पिछले एक साल से भी ज्यादा पुराने हैं।

 यानी हम देखें तो यह पाएंगे कि एक तरफ जहां जजों की संख्या कम है वहीं दूसरी ओर कानूनी मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। जजों की नियुक्ति हमारे देश के सामने एक गंभीर मसला बन चुका है। सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच आपसी मतभेद का पूर्ण हल आज तक नहीं निकाला जा सका है। एक तरफ जहां नियुक्तियों में सुप्रीम कोर्ट के पास पारदर्शिता को बनाए रखने की आवश्यकता है वहीं राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त होने के कारण कार्यपालिका का निर्णय भी जरूरी है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार निश्चित ही अपने राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करना चाहती हैं। हालांकि अब देखना होगा कि यह आपसी विवाद की प्रक्रिया कब तक चलती है।

 हाल ही में भारत सरकार ने कुछ सुधारों के साथ ऑल इंडिया जुडिशल सर्विस (एआईजेएस) को लाने के प्रस्ताव पर विचार जताया है, जिसके अंतर्गत जजों की भर्तियाँ संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा के माध्यम से कराई जाएंगी,जिससे कि खाली पदों पर सक्षम जजों को तेजी से नियुक्त किया जा सके। 

लेकिन क्या केंद्रीय परीक्षा से चयनित जजों को स्थानीय भाषा के अनुरूप चलना बहुत ही मुश्किल नहीं होगा? क्योंकि लोगों द्वारा दर्ज शिकायत और मुकदमे स्थानीय भाषाओं में ज्यादातर होते हैं।

 दूसरा प्रश्न चिन्ह यह भी उठता है कि जब जजों की नियुक्ति लोक सेवा आयोग के माध्यम से होगी तो क्या उसकी नियुक्तियों और कार्यों पर सरकार का हस्तक्षेप नहीं होगा ? उच्च न्यायालय के प्रमोशन में भी केंद्र सरकार की बड़ी भूमिका होती है।

 हमारे देश में जजों की नियुक्ति ही मुकदमों में कमी का सबसे बड़ा कारण बन सकती है। सरकार और न्यायालय के बीच अभी तक कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सका है।  कहा गया है कि न्याय में देरी न्याय ना मिलने के बराबर होती है। लेकिन इस निराशा से हमें बचाना सरकार और न्यायालय का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।

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